भोजन के पौष्टिक पदार्थ


भोजन के पौष्टिक पदार्थ
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स्नेह पदार्थ (घी और तेल)
दूध और अण्डे के बाद भोजन के पौष्टिक पदार्थों में घी बहुत महत्वपूर्ण है। बलवीर्य और आयु की वृद्धि तथा मस्तिष्क के स्नायु मण्डल को शक्ति पहुँचाने में घी के बराबर शक्तिशाली दूसरा पदार्थ नहीं। विशेषकर अण्डा और मांस आदि से परहेज रखने वाले भारतीयों के भोजन में पोषक तत्व के रूप में घी का रहना नितान्त आवश्यक है।
दैनिक भोजन में एक छटांक घी लेते रहने से शरीर को पूर्ण चिकनाई और पौष्टिक तत्व मिल जाते हैं। घी में सौ प्रतिशत स्नेह होता है। प्रोभूजिनयुक्त दाल आदि खाद्य पदार्थ यदि घी सहित थोडे परिमाण में भी खाये जावें तो उनसे शरीर की क्षतिपूर्ति होती है। बिना घी के प्रोभूजिनयुक्त पदार्थ अधिक मात्रा में लेने पर भी उतना लाभ नहीं करते।
उष्णताजनन करनेवाले स्नेह तथा उदांगारतत्व (Carbohydrates) शरीर में आवश्यक गर्मी और पाचकाग्नि को ठीक रखते हैं। घी में उत्तम पौष्टिकता के
अतिरिक्त सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह शरीर में उष्णताजनन का कार्य बहुत सफलतापूर्वक करता है। एक तोला मांस या चीनी खाने से जितनी उष्णता उत्पन्न होती है, उससे ढाई गुना तोला घी खाने से होती है। इससे ही भोजन में घी के महत्व का अन्दाज लगाया जा सकता है।
स्नेह द्वारा उष्णताजनन का कार्य यों तो तेल खाने से भी हो सकता है: परन्तु घी, मक्खन आदि प्राणिज स्नेह, तेल की अपेक्षा पचनीय और जीवतीक्ति
(विटामिन) युक्त होते हैं। उष्णताजनन के अतिरिक्त व ऊर्जात्पादन, धातु वृहंण, शरीर की क्षतिपूर्ति, स्थैर्य और शक्ति का कोष संचित करने में भी सहायक होते हैं।
। तथापि, आजकल बाजार में दूध-दही से भी अधिक, असली घी का मिलना कठिन हो गया है। पूरी निश्चिन्तता के साथ शुद्ध घी उसका ही कहा जा सकता है, जो घर में ही, या अपने सामने ही निकाला गया हो। गाँवों से आनेवाले देशी घी को भी सहसा पूर्ण शुद्ध नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ग्रामीणों ने घी में मिलावट करने के ऐसे बढ़िया तरीके अब सीख लिए हैं, कि आश्चर्य होता है। दूध में वनस्पति तेल मिलाकर दही जमाते हैं और उससे निकाला हुआ मिलावटी घी, शुद्ध देशी के नाम से महँगा बेचते हैं। ऐसे मिलावटी घी पर पैसा खर्च करना बुद्धिमानी नहीं है। विश्वस्त और पूर्ण शुद्ध घी न मिले तो उसके स्थान पर शुद्ध और ताजा तेल खाना ही अधिक हितकर है।
शुद्ध घी गौ या भैंस के मक्खन से बनाया जाता है। गौ का घी रंग में कुछ पीला और भैंस का सफेद होता है। शुद्ध घी की परीक्षा करने का ढंग यह है कि थोडे घी में थोड़ा-सा नमक का तेजाब डालना चाहिए यदि उसमें वेजिटेबल घी मिला होगा, तो उसका रंग कुछ लाल हो जायगा ।।
आजकल बाजार में मिलने वाले पदार्थ को लोग वनस्पति घी कहते हैं वह । वास्तव में तेल का जमाया हुआ रूप है, जो कि तेल से भी निकृष्ट होता है। तेल को | जमा कर उसको घी का रंग-रूप देने में जो क्रिया करनी पड़ती है, उससे तेल के
बहुत-से गुण नष्ट हो जाते हैं और अनेक विपरीत अवगुण आ जाते हैं। जमा हुआ होने से यह पहचानना भी कठिन है कि यह किस चीज का तेल है और कितना पुराना है। वस्तुत: उसमें शुद्ध और ताजे तेल के भी गुण नहीं होते। इस तथाकथित बनावटी वनस्पति घी की इतनी खराबियां सिद्ध हो चुकी हैं कि यदि शुद्ध और ताजा तेल भी न मिले तो रूखा-सूखा ही भोजन अच्छा परन्तु यह नकली और बनावटी घी नहीं बरतना चाहिए।

दाले
दालें आहार-पूर्ति भी करती हैं और पौष्टिक भी होती हैं, इसलिए भोजन में दाल का विशेष महत्व है। अच्छा प्रकार से बनायी गयी दाल, रोटी या चावल के साथ लेने से उनको सुस्वाद बनाती है। चना, अरहर, मूग, मसूर, मोटे उडद, | सोयाबीन आदि दालों में मांस से अधिक प्रोभूजिन या प्रोटीन होता है।
दालों के कणों पर एक विशेष झिल्ली होती है, जिसको शरीर के पाचक  रस आसानी से नहीं गला पाते, इसलिए व दुष्पाच्य होती हैं: परंतु दालों को पर्याप्त पानी में डालकर दो घण्टे तक पकाया जाय फिर मथनी से दही की भाँति मथकर छौंक दिया जाय, तो कणों की झिल्ली हट जाती है और दाल पाचक बन जाती है, खाने के लिए दाल को खूब पतला बनाना चाहिए। खूब पकी हुई दाल में दो-तीन तोला घी या तेल डालकर रोटी या भात के साथ खाने पर वह सन्तुलित भोजन हो जाता है और उससे उतनी ही पौष्टिकता मिलती है, जितनी कि मांस, मछली, अण्डा आदि असात्विक भोजन से प्राप्त होती है। अन्न । भोजन में अन्न मुख्य आहार है। आयुर्वेद में अन्न को ही प्राणियों का प्राण कहा गया है और लोकभाषा में अन्न को ही भोजन कहा जाता है।शाकाहारी भोजन में अन्न प्रधान रूप में होता है। अन्न में विशेषकर गेहूँ, । चावल, चना, ज्वार, बाजरा, मकई और जौ आदि धान्यों का प्रयोग होता है। इन धान्यों में शरीर-पोषक प्रोभूजिन, ऊष्मा आदि पदार्थ विभिन्न मात्रा में विद्यमान रहते हैं।
हमारे देश में जो दैनिक आहार किया जाता है उसमें गेहूँ, दाल और चावल की प्रधानता रहती है। गरीबों के भोजन में ज्वार, बाजरा, मक्का और दाल की अधिकता रहती है। इनमें गेहूँ या ज्वार-बाजरा की रोटी तथा दाल, अथवा चावल और दाल खायी जाती है। जो लोग चावल अधिक खाते हैं, वे स्वास्थ्य की दृष्टि से दुर्बल होते हैं चावल के साथ थोडी चिकनाई मिलाकर पर्याप्त मात्रा में दाल भी
खायी जावे, तो वह किसी प्रकार संतुलित भोजन हो सकता है। स्नेह और दूध साथ में लेने से ही अन्नाहार पौष्टिक भोजन माना जाता है।
इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमारे देश में ही विभिन्न प्रदेशों (प्रांतां) के भोजन और स्वास्थ्य स्थिति में देखा जा सकता है। हमारे देश में सबसे अच्छा भोजन पंजाबी लोग करते हैं। खमीर डालकर बनाई हुई गेहूँ की रोटी, उडद की दाल और पर्याप्त घी-दूध उनका प्रधान भोजन होता है। वे मांसाहारी भी होते हैं । वस्तुत: अपने पूर्ण आहार में काफी मात्रा में घी-दूध और दही लेने के कारण ही पंजाबी भाई-अच्छे स्वस्थ लम्बे और तगडे होते हैं। राजस्थान का हवापानी पंजाब से कम स्वस्थ्यकर नहीं है, परन्तु भोजन-स्तर उत्तम न होने के कारण राजपूताना निवासी उतने लम्बे-तगडे और सबल नहीं होते, जितने पंजाबी होते है । हवापानी तथा भोजन की दृष्टि से उत्तरप्रदेश को दुसरे नम्बर पर गिना जा सकता है। वहाँ का भोजन बहुत रूचिकर तो है, परन्तु दुध या दुध के पदार्थों की कमी के कारण, उसे पूर्ण पुष्टिकर नहीं कह सकते । इसलिए उत्तरप्रदेश-वासी भी पंजाबवासियों से शरीर में दूसरे नंबर के होते हैं। बिहार का यों हवापानी बहुत अच्छा है, परन्तु आहार की दृष्टी से हीन होने के कारण वहाँ के निवासियों का स्वास्थ्य उतना अच्छा नहीं होता। जिनको पूर्ण खुराक मिलती है, वे बिहारी भी पंजाब के मुकाबले के तन्दुरुस्त होते हैं। बंगाली, मद्रासी, असमी आदि केवल चावल खाने वालों के भोजन में तो घी-दूध बहुत आवश्यक हैं। गुजरात और महाराष्ट्र में चाय के बहुतायत प्रचार ने दूध-घी खाने की सुरूचि को नष्ट कर रखा है, फलतः इन प्रदेशवासियों का स्वास्थ्य सामान्यत: गिरा हुआ है।
 पौष्टिकता के दृष्टि से चावल से अच्छा ज्वार-बाजरा और इनमें भी उत्तम गेहूँ होता हैं । संसार में गेहूं की खपत सबसे अधिक है। ८-१० घण्टा बैठ कर | दिमागी काम करने वालों के लिए धान्यों में गेहूँ सबसे श्रेष्ठ है। थोडा चना साथ | मिलाकर खाने से गेहूँ स्वादिष्ट, पाचक और अधिक पौष्टिक हो जाता हैं। गेहूँ के बराबर स्वास्थ्यकारक तत्व चावल में नहीं होते।  

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