आयुर्वेद और स्वास्थ्य सभ्यता के आरम्भ से ही हमारी जीवन-व्यवस्था में पूर्ण स्वास्थ्य माने आरोग्य को ही प्राथमिक महत्व दिया गया है। हमारे पूर्वज पूर्ण स्वस्थ रहना मनुष्य का अनिवार्य धर्म मानते थे, इसलिए स्वास्थ्य-साधन के नियम भी धार्मिक आचरण का अंग बनकर प्राचीन धार्मिक साहित्य में स्पष्ट मिलते हैं। भारतीय जीवन-विज्ञान-आयुर्वेद का तो उद्देश ही प्राथमिक रूप से स्वस्थों के स्वास्थ्य की रक्षा करना और द्वितीयत: रोगी की व्याधि का परिमोक्षण करना निर्धारित है
प्रयोजनं चास्य स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणमातुरस्य विकारप्रशमनं च।।
वर्तमान काल में स्थिति बड़ी विचित्र और शोचनीय होती जा रही है। हर व्यक्ति को सुख प्राप्ति की स्वाभाविक कामना तो है, परन्तु सुख के यथार्थ आधार-स्वास्थ्य-के प्रति सुरुचि और सचेष्टता का प्रायः अभाव ही दिखाई देता है। लोगों का इतना ही कर्तव्य शरीर के प्रति रह गया है कि जब बीमार हो गये तब वैद्य-डॉक्टर के पास भागे, और रोग को तुरन्त दमन करनेवाली दवा या इन्जेक्शन लेकर शरीर को काम चलाने लायक बना लिया जाए। इस वृत्ति के परिणामस्वरूप जन-सामान्य की रोगक्षमता और जीवनी-शक्ति एकदम निर्बल होती जा रही है। मामूली कारणों से ही बात-की-बात में लोग बीमार पड़ने लगे हैं। अस्पतालों या वैद्य-डॉक्टरों के यहां जहां भी देखिये, रोगियों की खासी भीड़ देखने को मिलती है। हमारी सरकार को करोड़ों-अरबों रूपये प्रतिवर्ष चिकित्सा के | साधन बढ़ाने पर व्यय करने पड़ते हैं। फिर भी चिकित्सा-सुविधाएँ न के बराबर हो रही | हैं। डाक्टरों की कमी को पूरा करने के लिए करोड़ों रुपयों की लागत के नये-नये मेडिकल | कालेज खोले जा रहे हैं। सब तरह की दवाओं की खपत दिनों-दिन अधिक हो रही है और नित्य नई दवाओं का प्रचार बढ़ रहा है।परन्तु इस तरह चिकित्सा के साधन बढाते जाने से रोगों का अन्त और स्वास्थ्य की स्थापना कभी नहीं हो सकती।
स्वास्थ्य का महत्व धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम् ।।रोगास्तस्यापतर: श्रेयसो जीवितस्य च ।।
- चरक भारतीय संस्कृति में मनुष्य जीवन का सर्वोपरि उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति बताया है। इन चारों ही पुरूषार्थों को पाने का वास्तविक साधन पूर्ण स्वास्थ्य है। अस्क्स्थ (रोगी) मनुष्य न तो धर्म का यथावत् पालन कर सकता है, न धन कमा सकता है। काम का आनन्द भोगना उसके लिए सम्भव नहीं, और मोक्ष की तो बात ही जाने दीजिए। वस्तुत: जीवन की सार्थकता और सुख प्राप्ति में स्वास्थ्य अर्थात् तन्दुरुस्ती क सबसे बड़ा उपयोग है। एक कहावत भी है।‘एक तन्दुरुस्ती हजार नियामत।' तन्दुरुस्ती एक तरफ और संसार के हजारों सुख एक तरफ।“तन स्वस्थ तो मन स्वस्थ विद्या, बुद्धि, धन-वैभव, कीर्ति-सम्मान आदि सब तरह के सुख-साधन जिसको प्राप्त है वह यदि पूर्ण स्वस्थ नहीं है, तो उसके लिए वे साधन किस काम के ? तन्दुरुस्त भिखारी, रोगी करोडपति से अधिक सुखी रहता है। शरीर से चंगा गरीब आदमी, रूखा-सूखा जो कुछ भी मिले उसे सन्तोष से खा-पीकर पचा लेता है और मेहनत करके सुख की नींद सोता है, परन्तु रोगी धनवान बढिया से बढिया भोजन पाकर भी उसको खा ही नहीं सकता, क्योंकि वह पचा नहीं पाता। न तो वह अधिक चल-फिर सकता है, न अन्य श्रम कर सकता है, न सांसारिक भोगों को भोग सकता है और न सुख की नींद सो सकता है।
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