पित्त ज्वर
यह बुखार वर्षा ऋतु या इसके अन्त में (भादों, अश्विन और कुछ कार्तिक तक) हुआ करता है । जिस साल वर्षा कम होती है, उस साल पित्त का बुखार भी कम और जिस साल ज्यादा बारिश होती है, उस साल ज्यादा होता है । वर्षा होने के कारण जगह-जगह जल इकट्ठा हो जाता है और-उसमें घास-पत्ते आदि गिर कर सड़ने लगते हैं जिससे वहाँ मच्छर पैदा हो जाते हैं । उस दुर्गन्ध के कारण वहाँ की हवा भी खराब हो जाती है । विषैले मच्छरों के काटने तथा हवा की गन्दगी से यह बुखार पैदा होता है। ऐसी दशा में जाडा देकर होनेवाला मलेरिया बुखार भी हो जाता है । हम मलेरिया के सम्बन्ध में आगे लिखेंगे । ।
आयुर्वेद शास्त्र में एक और भी युक्ति-संगत कारण लिखा है । वाग्भट ने लिखा है कि ऋतुओं के नियमानुसार वर्षा-ऋतु में पित्त का संचय होता है और शरद-ऋतु में पित्त कुपित होकर अनेक रोग पैदा करता है । वर्षा-ऋतु में वर्षा और ठण्डी हवा के कारण लोगों के शरीर ठण्डे रहते हैं। वर्षा के जाते ही जब धूप पडने लगती है, तब पित्त दूषित होकर बुखार पैदा करता है । पित्त से होनेवाले जितने रोग हैं उनमें बुखार सर्वप्रधान है। किसी भी तरह का बुखार हो उसमें शरीर की गर्मी बढना तो जरुरी ही है। शरीर के ताप का बढने का नाम ही बुखार है। यह ताप बिना पित्त के हो नहीं सकता। अत: बिना पित्त के कपित हए किसी भी प्रकार का बुखार नहीं हो सकता । वायु या कफ के बुखारो में भी पित्त का कुपित होना जरुरी है। जब बुखार के साथ पित्त का इतना सम्बन्ध है, तब पित्त के मौसमशरद् ऋतु में ही ज्यादा बुखार हुआ करता है ।
इस पित्त के बुखार से बचने के लिए। जुलाब लेना और कुछ रोज उपवास करना उचित है । नियमपूर्वक एक दो नीबू को। चूसने से बुखार का डर नहीं रहता । नीबू के दो टुकड़े करके उसके बीज निकाल लेने चाहिए और उसमें ऊपर से सेंधा नमक तथा काली मिर्च का चूर्ण १ ग्रा. से १ ।। ग्राम तक डाल कर कोयले की आग पर इसे गर्म कर लेना चाहिए और गर्म-गर्म चूसना चाहिए । देशी चीजों में बुखार रोकने के लिए यह कुनाइन से कम दवा नहीं है।
पित्त ज्वर में नीचे लिखे हुए लक्षण प्रकट होते हैं- १०३ से १०५ या १०६ डिग्री तक का जोर का बुखार, प्यास की अधिकता, कै और उसमें पित्त का निकलना, जी मिचलाना, सिर गर्म रहना, आंखे लाल रहना, पसीना अधिक आना, नींद न आना, कभी-कभी प्रलाप करना, मुंह का स्वाद कडूवा रहना, पतले दस्त का होना, बेचैनी और पेशाब का रंग पीला होना । बुखार सुबह में १०० से १०२ डिग्री तक, शाम को १०३ से १०६ डिग्री तक रहता है । बुखार की अधिकता के कारण रोगी आधी आँखें बंद किये पडा रहता है।
पित्त का बुखार प्रायः दसवें दिन उतरता है । रोग जब अच्छा होने को रहता है तो ७ दिन के बाद ही रोगी के लक्षण अच्छे मालूम होने लगते हैं, बेचैनी कम होने लगती है, नींद आने लगती है और शरीर का ताप कम हो जाता है, परन्तु यदि सातवें दिन से बुखार का वेग और भी बढ़ने लगे तो समझना चाहिए कि रोगी का बचना मुश्किल है। सात दिन के बाद रोग के लक्षण प्रबल होने से त्रिदोषज ज्वर हो जाता है, इसकी चिकित्सा ठीक से न हो तो यह रोगी की जान लेकर ही दम लेता देखा गया है । यह बुखार २१ दिन से भी ज्यादा रह सकता है। । चिकित्सा - रोगी को साफ हवादार कमरे में लिटा कर रखना सबसे अच्छी चिकित्सा है। शास्त्र ने ७ रोज तक दवा देने का निषेध किया है। अनुभव से भी देखा गया है कि ७ दिन के भीतर दवा देने से फायदा के बदले हानि होने लगती है । लेकिन प्राय: देखा जाता है कि दो-तीन दिन के बाद ही रोगी के घर के लोग घबराकर डाक्टर-वैद्य को दिखला कर दवा देने के लिए तंग करने लगते हैं। डाक्टर-वैद्य भी व्यापार की रक्षा के लिए अपनी जबाबदारी न समझ कर कुछ-नकुछ दवा देना शुरु कर देते हैं । होमियोपैथी में रोगी तथा उसके घर वालों के संतोष के लिए ऐसे मौके पर Blank Dose
(खाली साफ किये हुए जल की खुराक) देने की प्रथा है । इसी प्रकार यदि वैद्यराज जी होशियार हुए तब तो ऐसी हल्की दवा दे देते हैं, जिससे रोगी तथा उनके घर वालों को संतोष तो हो जाय, पर रोग तो काढा, चूर्ण, चटनी आदि चीज देने लग जाते हैं जिससे रोग बढ़ जाता है ।।
कडवे परवल के पत्ते, हरेंदल, बहेडादल, आँवला दल, नीम की अन्तरछाल, मुनक्का, इन्द्र जौ, नागरमोथा, मुलेठी, गिलोय और अडूसा-- ये सब द्रव्य सम भाग लें और १२ ग्राम का काढ़ा बनाकर उसमें नौसादर ६०० मि.ग्रा. और कलमी सोरा ६०० मि. ग्रा. डालकर दिन में ३-४ बार पीवें । केवल इसको या त्रिभुवनकीर्तिरस या ज्चर संहार आदि के अनुपान में दें । सब तरह के बुखारों में उत्तम लाभ करता है।
ज्वर की प्रधान दवा उपवास है । बुखार होते ही उपवास (फाका) करना शुरु कर देना चाहिए, किन्तु बालक, बुढे, गर्भवती-स्त्री तथा क्षय, वायु, भय, क्रोध, काम, शोक, परिश्रम से होनेवाले बुखार के रोगी के लिए उपवास करना अच्छा नहीं है । ऐसे रोगियों को दूध, साबूदाना, बार्ली, अरारोट, किसमिस आदि हल्का भोजन थोडा-थोडा दिन में तीन-चार बार देना चाहिए। जिसकी तन्दुरुस्ती अच्छी हो उसे पानी के अतिरिक्त और कुछ देना अच्छा नहीं, लेकिन आजकल के लोग प्रायः कमजोर ही होते हैं, इसलिए बिल्कुल निराहार रखना भी ठीक नहीं ; क्योंकि यदि बुखार ज्यादा दिन तक रह गया और खाने को कुछ नहीं मिला तो रोगी बहुत कमजोर हो जाता है । इसलिए अच्छी तरह सोच-विचार कर हल्का पथ्य तथा मौसमी, बेदाना आदि ताजा फल देना अच्छा है।
सारांश यह है कि यदि तन्दुरुस्ती वाले किसी मजबूत आदमी को बुखार आने लगे और वह दो ही चार दिन में उतर जाय तो वह निराहार भी रह सकता है, पर ज्यादा दिन का होने से ऊपर बतलाये गये हल्के पथ्य दिये जाने चाहिए और कमजोर आदमी को तो बराबर कुछ-न-कुछ खिलाना ही चाहिए, जिससे उसकी कमजोरी ज्यादा बढने न पावे ।
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